आश्वस्ति / अज्ञेय
थोड़ी और दूर :
आकृतियाँ धुँधली हो कर सब समान ही जावेंगी
थोड़ा और
सभी रेखाएँ धुल कर परिदृश्य एक हो जावेंगी।
कुछ दिन जाने दो बीत :
दुःख सब धारों में बँट-बँट कर
धरती में रम जाएगा।
फिर थोड़े दिन और :
दुःख हो अनपहचानी औषधि बन अँखुआएगा।
और फिर
यह सब का सब शृंखलित
एक लम्बा सपना बन जाएगा
वह सपना मीठा होगा।
उस में इन दर्दों की यादें भी
एक अनोखा सुख देंगी।
दुःख-सुख सब मिल कर रस बन जावेगा।
तब-हाँ, तब, उस रस में-
या कह लो सुख में, दुःख में, सपने में,
उस मिट्टी में-उस धारा में-
हम फिर अपने होंगे।
ओ प्यार! कहो, है इतना धीरज,
चलो साथ
यों : बिना आशा-आकांक्षा
गहे हाथ?
(पर क्यों? इतना भी क्यों?)
यह कहा-सुना, कहना-सुनना ही सब झूठा हो जाने दो बस, रहो, रहो, रहो...)
नयी दिल्ली, 30 मई, 1986