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साँझ सवेरे / अज्ञेय

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रोज़ सवेरे मैं थोड़ा-सा अतीत में जी लेता हूँ-
क्यों कि रोज़ शाम को मैं थोड़ा-सा भविष्य में मर जाता हूँ।

नयी दिल्ली, जून, 1968