भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तं तु देशं न पश्यामि / अज्ञेय
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:54, 11 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=क्योंकि मैं उसे जा...' के साथ नया पन्ना बनाया)
देश-देश में बन्धु होंगे
पर बहुएँ नहीं होंगी
(राम की साखी के बावजूद);
किसी देश में बहू मिल जाएगी
जहाँ बन्धु कोई नहीं होगा।
किसी की जगह
कोई नहीं लेता :
यह तर्क भी
दर्शन की जगह नहीं लेगा,
क्यों नहीं मैं ही
अपनी जगह दूसरा
व्यक्तित्व खोज लेता?
नयी दिल्ली, अगस्त, 1968