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तं तु देशं न पश्यामि / अज्ञेय

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देश-देश में बन्धु होंगे
पर बहुएँ नहीं होंगी
(राम की साखी के बावजूद);
किसी देश में बहू मिल जाएगी
जहाँ बन्धु कोई नहीं होगा।

किसी की जगह
कोई नहीं लेता :
यह तर्क भी
दर्शन की जगह नहीं लेगा,
क्यों नहीं मैं ही
अपनी जगह दूसरा
व्यक्तित्व खोज लेता?

नयी दिल्ली, अगस्त, 1968