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नाता-रिश्ता-2 / अज्ञेय
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तो यों, इस लिए
यहीं अकेले में
बिना शब्दों के
मेरे इस हठी गीत को जागने दो, गूँजने दो
मौन में लय हो जाने दो :
यहीं जहाँ कोई देखता-सुनता नहीं
केवल मरु का रेत-लदा झोंका
डँसता है और फिर एक किरकिरी
हँसी हँसता बढ़ जाता है-
यहीं जहाँ रवि तपता है
और अपनी ही तपन से जनी धूल-कनी की
यवनिका में झपता है-
यहाँ जहाँ सब कुछ दीखता है
पर सब रंग सोख लिये गये हैं
इस लिए हर कोई सीखता है कि
सब कुछ अन्धा है।
जहाँ सब कुछ साँय-साँय गूँजता है
और निरे शोर में संयत स्वर धोखे से
लड़खड़ा कर झड़ जाता है।