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आत्म-बोध / भाग 5 / मृदुल कीर्ति

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ज्ञाता , ज्ञान, ज्ञेय को भेदा, परम तत्त्व में सकल अभेदा.
स्वयं दीप्त परमात्म आलोका, चिदानंद अस्तित्व है एका॥४१॥

'मैं हूँ ब्रह्म' ध्यान धरि ध्याना, जरत अज्ञाना , उभरत ज्ञाना,
जस अग्नि लकड़ी में वासा, संघर्षण सों प्रगट प्रकासा॥४२॥

ज्ञानोदय का अरुण सबेरा, मिटत तबहिं, अज्ञान अँधेरा,
उदित सूर्य ज्योति जस होई, तस ही आत्म उजागर होई॥४३॥

आतमा तो सततं प्राप्तव्या, पर बिनु ज्ञान, नहीं ज्ञातव्या,
कनक आभूषण यद्यपि ग्रीवा, किन्तु भूल वश खोजत जीवा॥४४॥

भ्रम वश वृक्ष मनुज वत लागे, तस ही ब्रह्म जीव वत लागे.
भ्रम वश ब्रह्म जीव आभासा, ज्ञान होत सत ब्रह्म उजासा॥४५॥
  
मैं, मेरा ममकार अहंता, आत्म ज्ञान अज्ञान को हंता,
उदित रवि जस तिमिर विछिन्ना, दिशा बोध फिर होत विभिन्ना॥४६॥

अखिल जगत निज आत्म स्वरूपा, योगी ज्ञान चक्षु सम रूपा.
सम्यक ज्ञान व् सम्यक दृष्टि, आपुनि जस देखत सब सृष्टि॥४७॥


देखत जगत आत्म-वत योगी, सम्यक दृष्टा सत्य प्रयोगी.
माटी घट माटी ही मानो, तस ही आत्म वत सबको जानो॥४८॥

कारण- सूक्ष्म- देह स्थूला, जीवन मुक्त के मिटत समूला.
स्वयं सच्चिदानंद स्वरूपा, भ्रमर कीट वत ही तदरूपा॥४९॥

मोह उदधि जिन उतरे पारा, राग द्वेष के निवृत पसारा.
योगी शान्ति समा अस युक्ता, आत्म -राम में रमे संयुक्ता॥५०॥