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पिता के न रहने पर / नंदकिशोर आचार्य

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बहुत जतन से रखे थे पिता ने
अन्दर वाले बक्से में
अपना दो घोड़ा बोस्की का कुर्ता
धोती सच्चा हीरा और दुपट्टा रेशमी
खास मौकों पर पहन सकने के लिए।

शुरू में कभी फुर्सत के दिन
दिखा भी देते थे उन्हें
धूप और हवा
फिर डर गये
कहीं हाथों पर जमे
कत्थे के धब्बे न लग जायें उन पर ।
सलवटें पड़ रही थीं
पर सोचते थे
वे मिट जायेंगी दुबारा इस्त्री करवा लेने से
जो मैं-उन का बड़ा बेटा-
करवा लाऊँगा।

लेकिन अब क्या करते वह
उन अनगिन छेदों का
जो कसारियों ने कर डाले
और दो घोड़ा बोस्की का कुर्ता
धोती सच्चा हीरा
और रेशमी दुपट्टा
तार-तार हो गये।

एक मरोड़-सी उठती रूलाई
जिसे वह एक बेबस मुस्कुराहट से
ढँक कर दबा देते
कसारियों से खा लिये गये
धोती-कुर्ते और दुपट्टे के साथ
और झेंपते हुए
हमारी ओर देखते-
कहीं देख तो नहीं लिया हम ने उन्हें
उन तार-तार कपड़ों को
सहलाते-सहेजते हुए।

हम सब भाई-बहिन
शर्माते हुए कुछ भी न देखने का
बहाना करते
जैसे हम ने उन्हें नंगा देख लिया हो।

नहीं, हमें कोई हक नहीं था
-किसी को नहीं होता-
किसी के निजी बक्से में झाँकने का
चाहे वह अपने पिता का ही
क्यों न हो।

अब वह नहीं हैं
तो यह कविता लिख रहा हूँ
डरता हुआ
कहीं मेरा बेटा
न पढ़ ले इसे

(1983)