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एक भीगी मुस्कराहट / दीपक मशाल

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जिंदगी के कड़ाहे में खौलते हालात..
चुपके से वक़्त का हलवाई
डाल देता है उसमे
उबलने के लिए साँसों को..

जलती, तड़पती, उछलती साँसें
बचतीं, उतरातीं..
तो कभी डूबतीं..

आखिर में जब इस सबसे गुजरी कोई साँस
इस तड़प इस दर्द को
बाँट लेती है कोरे पन्नों के साथ
एक रचना में ढाल...
तो बेजुबान पन्ने
जुबां वालों को करते हैं मजबूर
कभी आह तो कभी वाह उचारने को

पर किन्हीं आँखों का एक जोड़ा
महसूसता है कुछ अलग
वो बेसबब मुस्कुराती रचनाओं की सीपों के पीछे
तलाशने लगता है खारे मोती
तो बरबस भीग जाती हैं मुस्कुराहटें..

और सूखे ज़ज्बातों की रेत के बीच
निर्मित हो जाती है एक मृग मरीचिका
एक भीगी मुस्कराहट..