सीता आँसू रोक न पायी
जब यह सुना,उसकी है प्रभु-सँग गयी बिठायी
बोली-सखी! वन में भी कम सुख !
दो-दो पुत्र खेलते सम्मुख
सोच-सोच बस स्वामी का दुख
रहती हूँ अकुलाई
'सँग न मिल सका अवधपुरी का
पर मुझ-सा सौभाग्य किसी का !
दे कर भी कलंक का टीका
पति ने सुधि न भुलायी
'बस यह दुःख न गया अंतर से
मरी न क्यों रावण के कर से
मुझे विदा करने की घर से
वह कुघड़ी क्यों आयी'
सीता आँसू रोक न पायी
जब यह सुना,उसकी है प्रभु-सँग गयी बिठायी