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माँझी से (रवीन्द्रनाथ के प्रति) / गुलाब खंडेलवाल

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माँझी से
(रवीन्द्रनाथ के प्रति)

किसे पुकार रहा तू माँझी! धूमिल संध्या-वेला में
सागर का है तीर, खडा हूँ संगीहीन अकेला, मैं
डूब चुका रवि अरुण, थकी लहरें, उदास है सांध्य-पवन
तारक-मणियों से ज्योतित नीलम-परियों के राजभवन
मधुवन पीछे लहराता है शांत मरुस्थल के उर में
आगे तरल जलधि-प्रांगण रोता विषाद-पूरित सुर में
. . .
शिथिल बाँह, पग काँप रहे, कंठ-स्वर रुँधने को आया
झुकी कमर, जड़-काष्ट उँगलियाँ, जीर्ण त्वचा, जर्जर काया
समझा, जीवन की संध्या में आज पुकार रहा किसको
कौन तरुण वह, सौंप चला जायेगा यह नौका जिसको
आ जा माँझी! छाया-सा चुपचाप उतर निर्जन तट पर
इन लहरों से मैं खेलूँगा अब तेरी नौका लेकर

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