भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कृपा का कैसे मोल चुकाऊँ ! / गुलाब खंडेलवाल
Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:31, 30 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल |संग्रह=तिलक करें ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
कृपा का कैसे मोल चुकाऊँ !
मस्तक काट चढ़ा दूँ फिर भी उऋण नहीं हो पाऊँ
तूने तो अगजग से चुन कर
दिया मुझे मानव-तन सुन्दर
हाथों में वीणा दी, जिस पर
नित नव सुर में गाऊँ
पर मैं अपने मन से हारा
भर न सका श्रावण-घन-धारा
दोष किसे, रिसते घट द्वारा
यदि रीता रह जाऊँ !
ज्यों-ज्यों आती घड़ी मिलन की
चिंता बढती जाती मन की
सुध न रही कुछ भी निज प्रण की
क्या मुँह तुझे दिखाऊँ
कृपा का कैसे मोल चुकाऊँ !
मस्तक काट चढ़ा दूँ फिर भी उऋण नहीं हो पाऊँ