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कलकत्ता - 2 / संगीता गुप्ता
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बिछुड़ कर भी
अनजाने, अनचाहे
समूचे वजूद पर
पसर जाता वह
जिसने
हर छोटी - बड़ी सफलता पर
झूम कर
बाहों में भरा
बहुत लाड़ से सहेजा
हर अभियान में
हमकदम, हमसफर
इतना साझा
रचा - बसा सांसों में जो
कैसे भूलोगे उसे
बार - बार, हर बार
दास्तो के चेहरों में
तब्दील हो जाता
वह शहर
पूरा का पूरा
साथ आयेगा
आपके बाहर
आपके भीतर