भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
टूटने से ज्यादा / संगीता गुप्ता
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:25, 13 सितम्बर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संगीता गुप्ता |संग्रह=समुद्र से ल...' के साथ नया पन्ना बनाया)
शाम ढले
अनमनी, थकी लैटती है
दफ्तर से
हर बार की तरह
उमग कर आज
नहीं मिलता बेटा
आंखें चुराता
असहजता को
सहज बनाने में जुटा दिखता
टिफिन का डिब्बा
पर्स सहेज कर
साड़ी का पिन खोलते हुए
ठिठक कर रह जाती है
ठीक बीच से
चटक गया है आईना
ड्रेसिंग टेबल की तरफ
देखते हुए चीख पड़ती है वह
" यह क्या किया तुमने "
आ खड़ा होता है
सहमा सा सिर झुकाए
नन्हा अपराधी
- बुदबुदाता - सॉरी मम्मा
गेंद जा लगी शीशे पर बस ...
चटका ही तो है
टूटा नहीं पूरा
क्हते - कहते सुबक पड़ा है बेटा
डांट नहीं पाती
खो जाती है खुद में
बोल पड़ती है मुंह के भीतर ही
तुम्हें कैसे समझाऊँ
टूटने और चटकने का फर्क
</Poemमोटा पाठ>