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औरत - 2 / संगीता गुप्ता
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औरत
रचती है घर
बहुत शुरू से
गुड़िया बेजान
सीने से लगाये लगातार
महसूस करने लगती है
धड़कनें उसकी
ताना - बाना अपने सपनों का
बुनती है उसके इर्द - गिर्द
नन्हीं - सी दुनिया
अपनी खुद की बनाती
बोती खालिस उम्मीदें
तमाम तरह की
फूल रंग - रंग के खिलते
हुलस कर चूमती
अपने जने शिशु को
निहारती अपलक
सच हुआ सपना
विस्तार अपनी सत्ता का
पूरा महसूस करती खुद को