भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

औरत - 4 / संगीता गुप्ता

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:52, 13 सितम्बर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संगीता गुप्ता |संग्रह=समुद्र से ल...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


दर्द करते माथे के बावजूद
सोचती है वह
बच्चे, घर और परिवार
नहीं रहते अनुपस्थित कभी सोच में

और नहीं जा पाता है इनसे बाहर
उसके सोच का, सपनों का फेरा

बोलते हैं उसके लड़े युद्ध
सुबह, दोपहर, शाम
हर दिन
उसके मौन के बीच से,
पूरे परिवार का, दफ्तर का
कोलाहल पीता
निरन्तर बजता है मौन उसका
बन कर अनहद नाद

घर, परिवार और दफ्तर
सब कहीं आँखें फाड़े देखती हूँ
कहाँ - कहाँ
गूंजता है निरन्तर
उसके मौन का
अविराम नाद