भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक तार हूं मैं भी / विमल राजस्थानी

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:10, 12 अक्टूबर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विमल राजस्थानी |संग्रह=लहरों के च...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


विश्व-भारती की वीणा का एक तार हूँ मैं भी
डुंग-डुंग बजती अमृत-बीन का स्वर-सिँगार हूँ मैं भी

सुर-सप्तक जब रहे अधूरा, बीन बजेगी कैसे ?
मधुर-मदिर सपनों से जग की नींद सजेगी कैसे ?
दुल्हा चाँद निशा-घर तारों की बारात न लाये
सन्धया सिन्दूरी सपने अँजुरी भर-भर न लुटाये
छन्दों की सुकुमार हँसी जब क्षितिज-अधर पर नाचे
अतनु-विह्वला रजनी तारक-कम्पन की लिपि बाँचे
तभी सार्थक होता वीणा का डुंग-डुंग कर बजना
मनभाये सुमनों से माँ के पद-पद्मों का सजना
सच है-क्षणजीवी हूँ नन्हा सुमन सृष्टि-उपवन का
न्यौछावर होने वालों में ‘हरसिंगार’ हूँ मैं भी

क्वाँरी ऋतुँए जब वसन्त राजा से ब्याहीं जातीं
वर्षा देती अघ्र्य अश्रु का, नभ की फटती छाती
करूण विदाई का वह दारूण दृश्य हिला जाता है
डबडब आँखों से आगे का पथ न सूझ पाता है
बेटी होती विदा सदा को, दृग-दृग अँसुवाते हैं
क्षिति-नभ जब आँसू से नख-शिख भींग-भींग जाते हैं
करूण सिसकियों से घर-आँगन-द्वार सुबक पड़ता है
मेरा भी तो रोम-रोम चीत्कार किया करता है
आँसु के इस महासिन्धु की लघुतर एक लहर-सा
वृषभ-स्कन्ध पर डोलित डोली का कहार हूँ मैं भी

करूणा होती सिक्त, धरा जब आर्तनाद करती है
काल देवता रो पड़ते, सदियाँ सिसकी भरती हैं
सरस्वती जब बीन त्याग, विप्लव का शंख बजाती
अरियों के सिर काट-काट मुण्डों की माल सजाती
शेषनाग के क्रुद्ध सहस फण अंगारे बरसाते
डोल-डोल उठते भूगोल-खगोल, नखत टकराते
विद्रोहों का जनक, विप्लवों का मैं उत्स भयंकर
अमर क्रान्ति की हुकृंतियों का महोच्चार हूँ मैं भी
स्वर-प्रहार हूँ मैं भी।

विश्व-भारती की वीणा का एक तार हूँ मैं भी
डुंग-डुंग बजती अमृत-बीन का स्वर-सिँगार हूँ मैं भी
एक तार हूँ मैं भी।