भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बाल को बाल ही रहने दो / चंद्रभूषण
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:28, 17 अक्टूबर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चंद्रभूषण }} {{KKCatKavita}} <poem> रीमानजी, आज ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
रीमानजी,
आज आपके श्रीमुख से काफ़ी घुमा-फिरा कर यह सुनना अच्छा लगा
कि स्वयं को आप मालिक की नाक का बाल समझते हैं ।
मैं आपको बताऊँगा नहीं, लेकिन हक़ीक़त यही है
कि यहाँ काम करने वाले लोग आपको कहीं और का ही बाल समझते हैं-
इतनी गर्हित जगह का, कि कभी उसे जताना भी ठीक नहीं समझते ।
ख़ुद मालिक आपको कहाँ का बाल समझता है, यह तो रहने ही दें
इस दुनिया में कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिन्हें इंसान ख़ुद से भी छुपाता है-
आपकी भंगिमा बताती है कि यह बात आप अच्छी तरह जानते हैं ।
बहरहाल,
कहीं के भी हों, कुल मिलाकर हैं तो बाल ही-
ज्यादा तनतनाएँगे तो किसी दिन बिना शेविंग क्रीम लगाए काट दिए जाएँगे
पता भी नहीं चलेगा कि इतने भले बाल को किसने काटा, और आख़िर क्यों ?