भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं और तुम / विमल राजस्थानी

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:31, 21 अक्टूबर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विमल राजस्थानी |संग्रह=लहरों के च...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं गीत का गुंजन करूण, तुम सिसकियों का रोर हो
मैं अश्रु की लघु बूँद हूँ, तुम उंगलियों की पोर हो

मैं हूँ उठी श्यामल घटा
सौदामिनी की तुम छटा
अनुगूँज मैं बौछार की
तुम गीत सकरूण अटपटा
मैं हूँ व्यथा का सिन्धु, तुम मँझधार की हिलकोर हो

मैं दर्द हूँ, तुम वेदना
तुम पीर हो, मैं दुःख घना
मैं भावना, तुम कल्पना
दोनों मिले तो कवि बना
मैं बाल रवि की नव किरण, तुम दृष्टि छूती भोर हो

जग ने न देखा नयन भर
कवि का द्रवित सुकुमार मन
यदि देख लेता तो धरा की-
छवि निखरती स्वर्ग बन
मैं सृष्टि-उर की धड़कनें, तुम छवि-क्षितिज का छोर हो

यदि हम न होते, विश्व को-
मधुमास मिल पाता नहीं
छवि-जाल फूलों का सुघर
नभ-बीच खिल पाता नहीं
मैं उमड़ता पावस सघन, तुम मलय वायु-झकोर हो