भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रिय के पथ पर बिखरो साथ / विमल राजस्थानी

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:17, 21 अक्टूबर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विमल राजस्थानी |संग्रह=लहरों के च...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हलका हो दिल, आँसू छलकें, कुछ ऐसी बात करो साथी !

आरती अश्रु की सजी नहीं
जंजीर पीर की बजी नहीं
अर्चना अधूरी जब होगी
पूजा वह पूरी कब होगी
इसलिये निठुर प्रियतम के तुम
तलवों के तले हृदय की नम कोमल सौगात धरो साथी

दुनिया के दिल की हलचल में
हम अपना मन बहला न सके
जग नहीं हमारा हो पाया
हम भी जग के कहला न सके
जिस पर अकेले को ही हम पूजते रहे हैं जीवन भर
उसके वियोग की चर्चा कर टुक अपनी आँख भरो, साथी

जन्मों की प्यास हमारी है
साधना न क्षण का हारी है
हम अब तक ‘उसको’ पा न सके
यह किस्मत की लाचारी है
ओ जनम-जनम के सहचर मन ! कुछ और तपो निखरो, साथी

इस असफलता की कल्पलता-
को केवल आँसू काटेंगे
छौने सुकुमार वेदना के ही
तो अपना दुख बाँटेंगे
भुज-बल से लहरें चीर, तरी तारो, तट पर उतरो, साथी !
प्रिय कौन, कहाँ से आयेगा
इस दुनिया को बतलाना क्या ?
जग ने कब समझा, समझेगा-
आँखों का भर-भर आना क्या ?
जीवन को अश्रु बनाकर तुम प्रिय के पथ पर बिखरो, साथी।