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पूर्णत्व की याचना / विमल राजस्थानी
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खो न जाऊँ कहीं इस भरी भीड़ में
इसलिये भिन्न पहचान दे दो मुझे
दो अलग कण्ठ-स्वर, दो अलग ताल-लय
तान जिसकी अलग, गान दे दो मुझे
सृष्टि-अथ से लहर पर लहर आ रही
फिर वही मेघ बन व्योम पर छा रही
श्रेणियों में बँटा नीर, संज्ञा मगर-
नीर की नीर ही तो है कहला रही
श्रेणियों की त्रिवेणी न बाँधे मुझे
पूर्णता के सुस्वर-सिद्ध साधें मुझे
मैं विभाजित न होऊँ, अखण्डित रहूँ
श्रेष्ठतम, शुभ्र वरदान दे दो मुझे
भेड़ की चाल ही लीक है लोक की
कार्य-करण यही लीक है शोक की
वे अंधेरी गुफायें न मंजिल बनें
सृष्टि मैं कर सकूं नव्य आलोक की
मोह प्राची-प्रतीची का घेरे नहीं
रश्मियाँ काल-छवि ही उकेरें नहीं
सूर्य धुँधला हुआ, माँज दूँ मैं इसे
दीप्ति के दर्प का दान दे दो मुझे