कितनी बार / विमल राजस्थानी
कितनी बार नाव बदली है, कितने घाटों पर उतरा हूँ
छिटक ‘पूर्ण’ से अणु-कण बन, मैं कितनी बाटों पर बिखरा हूँ
पर, इस बार तरी को तज कर
महासिंधु की बाँह गही है
जन्मों की साधना फली तो
लगा कि किस्मत हुई सही है
रवि-किरणों का साथ सरल है, कंचन-सी काया झलमल है
स्नेह भरे सीकर-समूह में इन्द्रधनुष-सा मैं निखरा हूँ
जब-जब बदली नाव पुरानी
मिले मुसाफिर नये-नये थे
जब-जब बदली हाट-बाट तो
दृश्य पुराने बदल गये थे
कभी मिलता तल मधुर प्रेम का, कभी लहर ले गयी किनारे
कभी रेत की रगड़ मिली तो अंतरतम तक मैं सिहरा हूँ
कथनी-करनी के अंतर को
बहुरूपिये समझ कब पाये
ईष्र्यावश उड़ते पंछी के-
लिये चतुर्दिक जाल बिछाये
पर पंछी नापता रहा नभ, लिये चुंच में किरण रूपहली
विद्रुपित कर सकी न डाही दुनिया मैं प्रतिपल सँवरा हूँ
ऐसी बात नहीं कि ‘उपेक्षा’
मेरा मनुआ समझ न पाये
पर, कृतघ्न वह नहीं द्वार से-
दूर खड़ा हो, मुँह बिचकाये
जब तक जग ‘शालीन’ रहा है, थोड़ा-सा भी स्नेह बहा है
सदा कसौटी पर मैं चमका, दमका, खिला, खरा उतरा हूँ