भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धवल गिरि / पदमचरण पटनायक / दिनेश कुमार माली

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:10, 23 अक्टूबर 2012 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रचनाकार: पद्मचरण पटनायक(1885-1956)

जन्मस्थान: पांचगांव, पुरी

कविता संग्रह: पदम पाखुड़ा(1928), अशोक कोइली(1930), सूनार देश(1931), गोलापी गुच्छ(1932), सूर्यमुखी(1945), आशा मंजरी (1951),धौली-पहाड़(1920)


धवलगिरि, धवलगिरि
आज तुम मौन क्यों हो ?
दयानदी की रेत पर मैने
कितना खोजा तुम्हारे अतीत गौरव का राज।

धवलगिरि, धवलगिरि
अपने रूखे मुख पर दुख पोतकर
तपस्वी की तरह बैठी हो
किस भावना में रात/दिन ?

धवलगिरि, धवलगिरि
शर्म लाज त्यागकर सिर उठाओ
और सुनाओ तुम्हारे अतीत की गौरव कहानी

धवलगिरि, धवलगिरि
अशोक सम्राट अब रह गए कहाँ ?
कहाँ उनके जैसा धर्म उनके जैसा कर्म
थोड़ा/सा भी अब मिलेगा कहाँ।

(2)
धवलगिरि, धवलगिरि
तुम्हारे मस्तक पर शोभित गौरव /तिलक
गुरु की तरह खुद राजकुमार को
देती हो दीक्षा और बनाती हो धर्मरक्षक
सोचने से लगती ,मानो कल की बात
आए उत्तर से सहस्र योद्धा करने आघात
बनकर नरभक्षी करने नरमुंड/पात
जिस रास्ते होकर गुजरे वे
बहा खून फव्वारों की तरह
इधर / उधर खोजकर शत्रु को
उतारा तलवार से मौत के घाट
मगर बुझ नहीं सकी खून की प्यास
तब घुस आए महानदी के पास
लेकिन महानदी का पानी छूने मात्र से
हाथ से तलवार नीचे गिर गई उसी पल
बार/बार कोशिश की उठाने की
पर उठ न सकी ,गिरी तुरंत भूतल
घोर आश्चर्य की बात !
वीर अचंभित सारे
देखने लगे दूर पर्वत जितनी ऊँची
खून की जलती होली
वीरों का मन आहत
उनका सारा बल स्वाहा
राजा के सम्मुख वीर
हाथ जोड़कर करने लगे प्रार्थना
“नाथ, मत जाइए कलिंग भूमि में
यह देवताओं की लीला भूमि है।”
राजा घमंड में हिंसक पशु की तरह
दहाड़ा
“दुनिया में कहीं देवता नहीं है।
देवता होते हैं भीरू लोगों का संबल
दीन/दुर्बल लोगों के प्राणों की कथा
मेरा देवता मेरी तलवार
तलवार से बढ़कर है कोई ?
किसी भी हाल में जीतूँगा कलिंग भूमि
उठो वीरो, तजो विषाद
याद करो हमारी गौरव गाथा
जितने भी जीते हैं हमने देश
बनेगा कलिंग उनका माथा।”
अदम्य साहस से लड़ी कलिंग संतान
शत्रु/संग भरकर अपने बाजुओं में बल
हजारों/ हजारों शव गिरे कटे पड़े भूतल
दिखने लगा लाल दयानदी का जल
विजय उल्लास में अशोक राजन
बैठकर गिनने लगा शत्रुओं की गर्दन
धवलगिरि
धीरे से उसके कान में तुमने क्या कहा ?

(3)
धवलगिरि, धवलगिरि
ऐसी क्या बात कही तुमने राजा के कान में
एक पल में बैठ गया वह अपूर्व समाधि ध्यान में।
रणोन्माद और जीत की खुशी में छू रहा था तुम्हारे चरण तल
बना रहा रहा था असंख्य सपनों के महल
मगर अचानक तैरने लगा उसके नयनों में जल
ध्यानभंग होते ही उसने चकित भाव से टेका माथा
"कैसा युद्ध ! कैसा युद्ध !" कह उठा विचलित कथा
उमड़ने लगी उसके प्राणों में एक दारुण व्यथा
"कैसा युद्ध ! कैसा युद्ध ! कहाँ आ गया मैं
फंस गया घोर जिगीषा जाल में
ये सब किया मैने किसके लिए ?
भगवान ने मेरे भाग्य में ऐसा क्यों लिखा ?
खून की मैने नदियाँ बहा दी थोक
अब कैसे मिटेगा मेरा जीवन/शोक ?
कितने जीवन को चिता में झोंक दिया !
कितने प्राणियों का मैने संहार किया !
कितने देशों को श्मशान/घाट बना दिया !
कितने सुखों के महलों में मैने आग लगा दी !
कितने जीवों को मैने भयभीत कर दिया !
कौन/सी पिपासा के साथ लिया मैने जन्म
हुई नहीं जो काल/कालांतर में ख़त्म
सारा जीवन हुआ व्यर्थ और अशांत
होकर असार आशा मधुर भ्रांत।
सोने के हरिण से आकर्षित होकर
इंद्रिय/सुख में काटा मैने कर अभिसार
जलती आग में कूदकर मैने
पाप से भर दिया यह सारा संसार।
‘धूमकेतू’ की लम्बी पूँछ पकड़कर
बुना मकड़ जाल घनघोर यन्त्रण
लोगों के आँसू खून की नदी में तैरते
आया हूँ आज इस गिरि चरण।
इस गिरी के चरण में, नदी के तट पर
पाई मैने आज परम शिक्षा
आज से कलिंग देश हो गया मेरा गुरु
लूँगा यहाँ मैं अपनी जीवन/दीक्षा।
यहाँ इस नदी किनारे बैठकर
बदलूँगा मैं अपनी जीवन गति
साक्षी रहो, मेरे चहुँ दिगपाल
साक्षी बनो, मेरे जीवन पति।
अंत में कलिंग/विजय के शुभयोग में
मनोबल के आगे हारा मेरा बल
देव/देश में आकर देव/अनुग्रह से
फलीभूत हुआ मेरा यह कैसा तपस्या फल !
यही तपफल और यही धर्मबल
आज से होंगे मेरे जीवन के भूषण
उसी बल से प्रभु दूर कर दो
लाखों प्राणियों का प्राण/कषण।
(4)
प्रिय प्रतिवेशी धवलगिरि,
तुम्हारे चेहरे पर देख रहा हूँ मैं रीत
गौरव शिखर में लाकर
कितने दिन गए मेरे बीत।
सुंदर मधुर गोधूलि गगन में
दिनचर्या पूरी कर दिवस पति
सिंदूरी तरंग बिखेर पश्चिम में
बढ़ रहा अस्ताचल तेज गति।
गायों के साथ किसानों के दल
उत्सुक हृदय से लौटते घर
अंधकार बिछाती श्रीअंग
संध्यादेवी विश्व में आती खर।
सुना रहा हूँ बैठकर, हे धवलगिरि
तुम्हारे शीर्ष के सुमधुर विहंग गीत
कानों में बज रही है असंख्य युगों की दुंदुभि
प्राणों में बह रही है अनंत प्रीति।
देख रहा हूँ, पलकों के आगे
तुम्हारे पुण्य महिमा की अक्षम छबि
झांक रहा हूँ व्याकुल भाव से,
धीरे से डुबता प्रदीप्त रवि।
ऐसे ही कलिंग तपन
डूबा दयानदी तीर
ऐसे ही कलिंग महिमा
मिटी कालसागर नीर।
गौरव महिमा अदभुत, दया, क्षमा
गई दयानदी के गर्भ में समा
साक्षी बने पास के देवात्मा
और दूर गगन के रवि/चंद्रमा
आया था ऐसा क्या सपने में
कहकर चला गया एक बात
उच्च महत्वकांक्षा,वासना या
चार दिन की चांदनी
फिर अंधेरी रात !
यश/मंदिर का राजा कहकर
लगाया था जिसने गौरव टीका विशेष
उस उज्ज्वल महिमा का हो गया शेष
और बचे रह गए शिक्षा के अवशेष
कई जातियाँ मिलकर आगे बढ़ीं
आगे बढ़कर रखा अपना नाम
सत्य/साहस की यह जन्मभूमि
मेरे कारण हो गई बाम !"

राजघरानें खत्म हो गए
बह गए सारे दयानदी में
परछाई तक नजर नहीं आई
विलीन हो गए सारे महाशून्य में
धवलचूल में !

लिंगराज विशाल मंदिर बचा है
बची है धवलगिरि
बची है पास में खंडगिरि
बेगाना बनकर हतशिरी !
चुपचाप अनकही हृदय/विदारक
कलिंग/पुराण महिमा कथा
अतीत काल के गौरव बखान
असंख्य प्राणों की दारूण/व्यथा !
प्रत्येक चट्टान के लटके मुँह पर
लिखा हुआ कीर्ति का राज
देखते/देखते कहीं इस देश के
सपनों पर गिर न जाए गाज !
कहो, तब, तुम मुझे धवलगिरि
कहो भला, मेरा मुँह देखकर
धवली देश में अतीत का
जीवन लौटेगा या नहीं।