Last modified on 26 अक्टूबर 2012, at 23:59

1997 के विदा-काल में / विमल राजस्थानी

आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:59, 26 अक्टूबर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विमल राजस्थानी |संग्रह=लहरों के च...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

तुम क्यों चिन्तित हो मेरे मन !
यदि चुका और थोड़ा जीवन
हँसकर, जीभर जी सभी साल
पतवार फेंक कर, चीर पाल
नौका लहरों के बीच डाल

तुमने न पलट तट को देखा
मुख पर न उगी भय की रेखा
डूबे न, बच गये बाल-बाल
साहस की पकड़े स्वर्ण-किरण

जीवित रहना है अलग बात
जीवन को जीना अलग बात
है एक अमावस की रजनी
दूसरा खिलखिलाता प्रभात

तुमने बस, निरखा बालारूण
जीवन भर तुम तो रहे तरूण
तुमने न गिन हैं तारे, या,
देखा न कभी कभी चन्द्र-ग्रहण

अपने अनुसार जिया तुमने
खुल-खुल कर गरल पिया तुमने
दुनिया को केवल दिया-दिया
कर फैला कुछ न लिया तुमने

जो भीतर है, वह बाहर है
रे ! वही सत्य, शिव, सुन्दर है
क्या हुआ कि स्वजन-परिजनों ने-
प्रतिशोध लिये नाहक गिन-गिन
जीवन तो यों ही चुकता है
रथ-चक्र कहीं क्या रूकता है ?
जो ध्वज फहराया है तुमने
तूफानों में कब झुकता है ?
दिग्विजय तुम्हारी ही होगी
संगिनि किलकारी ही होगी
सब पीछे छूटे-टूटेंगे
तुम बढ़ते जाओगे पल-छिन