भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उस पर्वत पर जहाँ कुंजों में / कालिदास
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:44, 28 अक्टूबर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKAnooditRachna |रचनाकार=कालिदास |संग्रह=मेघदूत / कालिद...' के साथ नया पन्ना बनाया)
|
स्थित्वा तस्मिन्वनचरवधूभुक्तकुण्जे मुहूर्तं
तोयोत्सर्गं द्रुततरगतिस्तत्परं तर्त्म तीर्ण:।
रेवां द्रक्ष्यस्युपलविषमे विन्ध्यपादे विशीर्णां
भक्तिच्छेदैरिव विरचितां भूतिमंगे गजस्य।।
उस पर्वत पर जहाँ कुंजों में वनचरों की
वधुओं ने रमण किया है, घड़ी-भर विश्राम
ले लेना। फिर जल बरसाने से हलके हुए,
और भी चटक चाल से अगला मार्ग तय
करना।
विन्ध्य पर्वत के ढलानों में ऊँचे-नीचे
ढोकों पर बिखरी हुई नर्मदा तुम्हें ऐसी
दिखाई देगी जैसे हाथी के अंगों पर भाँति-
भाँति के कटावों से शोभा-रचना की गई
हो।