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उस अलका के सतखंडे महलों की ऊँची / कालिदास
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नेत्रा नीता: सततगतिना यद्विमानाग्रभूमी-
रालेख्यानां नवजलकणैर्दोषमुत्पाद्यासद्य:।
शङ्कास्पृष्टा इव जलमुचस्त्वादृशा जालमार्गै-
र्धूमोद्गारानुकृतिनिपुणा जर्जरा निष्पतन्ति।।
उस अलका के सतखंडे महलों की ऊँची
अटारियों में बे-रोक-टोक जानेवाले वायु की
प्रेरणा में प्रवेश पाकर तुम्हारे जैसे मेहवाले
बादल अपने नए जल-कणों से भित्ति-चित्रों
को बिगाड़कर अपराधी की भाँति डरे हुए,
झरोखों से धुएँ की तरह निकल भागने में
चालाक, जर्जर होकर बाहर आते हैं।