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अधूरी रहेगी / महेश चंद्र पुनेठा

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रोज़-रोज़ करती हो साफ़
घर का एक-एक कोना
रगड़-रगड़ कर पोछ डालती हो
हर-एक दाग-धब्बा
मंसूबे बनाती होगी मकड़ी
कहीं कोई जाल बनाने की
तुम उससे पहले पहुँच जाती हो वहाँ
हल्का धूसरपन भी
नहीं है तुम्हें पसंद

हर चीज़ को
देखना चाहती हो तुम हमेशा चमकते हुए
तुम्हारे रहते हुए धूल तो
कहीं बैठ तक नहीं सकती
जमने की बात तो दूर रही

इस सब के बावजूद
रह गए हैं यहाँ
भीतर-बाहर
अनेक दाग-धब्बे
अनेक जाले
धूल की परतें ही परतें
धूसरपन ही धूसरपन

सदियों से बने हुए हैं जो
बने रहेंगे जब तक ये
अधूरी ही रहेगी तुम्हारी साफ़-सफ़ाई ।