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क्यों न कोसूँ / महेश चंद्र पुनेठा

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दिल्ली को
क्यों न कोसूँ मैं
मेरा भाई
जिसको चिंता थी गाँव की
उसके रहवासियों की ।

अँधेरे को लेकर
जिसके भीतर आक्रोश था
छटपटाहट थी
एक आग जलती रहती थी
एक कीड़ा कुलबुलाता रहता था ।

एक दिन
जो यह कहकर गया था दिल्ली
रोशनाई लेकर आएगा हम सब के लिए।

पहली बार गया था जैसा
वैसा फिर लौटकर नहीं आया दोबारा
स्मृति-दोष से ग्रस्त होता चला गया वह
हमें पहचानता तक नहीं अब
और न वह अब
सीधे-सीधे पहचाना जाता है हमसे ।

बदल गई है उसकी चाल-ढाल
बदल गया है उसका बोल-चाल
रतौंधी-सा कुछ हो गया है
अब दिल्ली से बाहर
कुछ दिखाई ही नहीं देता है उसे ।

न जाने ऐसे और कितनों के
कितने भाई-बहनों को छीना है
इस दिल्ली ने
किया है रोगग्रस्त
आख़िर क्यों न कोसूँ ऐसी दिल्ली को ।