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धूर्तता / महेश चंद्र पुनेठा

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तुम कहते हो -
कितनी अच्छी ज़िंदगी है इनकी
खा-पीकर मस्त रहते हैं
इन प्लास्टिक के बने तंबुओं के भीतर ।

एक जगह से जी भरा
चल देते हैं कहीं दूसरी जगह को
देश-दुनिया घूम लेते हैं इस तरह
( कितना सरलीकरण है यह स्थितियों का )

नहीं देखा है शायद तुमने इन्हें
मई-जून की चिलचिलाती धूप में
प्लास्टिक के इन तंबुओं में पकते हुए
भादो के गरजते-बरसते मौसम में
आधी-आधी रात को उखड़ते हुए
चीख़ते-चिल्लाते-चित्कारते
बच्चों-बूढों को लिए भागते हुए
किसी इमारत की आड़ में
सिर छुपाने भर छत की तलाश करते हुए

आँखों-आँखों में ही
कितनी काली रातें काटते हुए
जाड़ों की सतझड़ी में
तंबुओं में सिमटे-सिकुड़े कॅपकपाते हुए

जब तुम रजाई पर रजाई डाले
बंद किवाड़ों के भीतर
शिकायत करते हो पैरों में तात न होने की
बीड़ी पर बीड़ी सुलगा ये
भगाने का असफल प्रयास करते हैं ठंड को

चारों ओर से ख़ुद को रक्षक मेखला बना
बीच में नन्हे-नन्हे बच्चों को बैठा
लड़ते हैं ये ज़िद्दी शीत से
निगाहें आसमान में ही अटकी रहती हैं तब ।

एक सफ़र थका देता है तुम्हें
नहीं होती है हिम्मत बहुत दिनों तक
किसी दूसरे सफ़र में जाने की
इनका तो जीवन ही सफ़र में कटता है ।

तुम कहते हो —
कितनी अच्छी ज़िंदगी है इनकी
खा-पीकर मस्त रहते हैं
इन प्लास्टिक के बने तंबुओं के भीतर

कब बाज आओगे तुम
अपनी धूर्तता से ?