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स्थितप्रज्ञ / सूरदास

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हरि-रस तौंऽब जाई कहुँ लहियै ।

गऐं सोच आऐँ नहिं आनँद, ऐसौ मारग गहियै ।

कोमल बचन, दीनता सब सौं, सदा आनँदित रहियै ।

बाद बिवाद हर्ष-आतुरता, इतौ द्वँद जिय सहियै ।

ऐसी जो आवै या मन मैं, तौ सुख कहँ लौं कहियै ।

अष्ट सिद्दि;नवनिधि, सूरज प्रभु, पहुँचै जो कछु चहियै ॥1॥


जौ लौं मन-कामना न छूटै ।

तौ कहा जोग-जज्ञ-व्रत कीन्हैं, बिनु कन तुस कौं कूटै ।

कहा सनान कियैं तीरथ के, अंग भस्म जट जूटै ?

कहा पुरान जु पढ़ैं अठारह, ऊर्ध्व धूम के घूँटे ।

जग सोभा की सकल बड़ाई इनतैं कछू न खूटै ॥2॥