भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भले चौके न हों दो एक रन तो आएं बल्ले से / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

Kavita Kosh से
Tanvir Qazee (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:19, 9 नवम्बर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला' |संग्रह=अंग...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भले चौके न हों, दो एक रन तो आएँ बल्ले से
कई ओवर गंवा कर भी खड़े हो तुम निठल्ले से

वो मरियल चोर आखि़र माल लेकर हो गया चंपत
न क़ाबू पा सके उस पर सिपाही दस मुटल्ले से

जो क़ानूनन सही हैं उनको करवाना बड़ा मुश्किल
कि जिन पर रोक है वो काम होते हैं धड़ल्ले से

करो तुम दुश्मनी हमसे मगर ये भी समझ लेना
तुम्हारे घर का रस्ता है हमारे ही मुहल्ले से

ज़रा सी उम्र में ढो-ढो के चिंताएँ पहाड़ों सी
ये लड़के आजकल के हो गए कैसे बुढ़ल्ले से

अमीरी की ठसक तू मुझको दिखलाया न कर नादाँ
मैं सच बोलूँ तेरी दौलत मेरे जूते के तल्ले से

ये नेता आज के भगवान हैं समझे ‘अकेला’ जी
मजे़ में हैं वही जो इनके पीछे हैं पुछल्ले से