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नियति के प्रति / विमल राजस्थानी

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जीवन तो कई दिये तुमने, पर जीने को दो दिन न दिये
अपने में ही मन रमा रहा
अपने से ही सब सुना-कहा
घेरे के बाहर कब आया
छू सका न क्षितिजों की छाया
पाया ही पाया, जग को पर जीवन के दो पल-छिन न दिये
जिसने भी भेजा है उसकी-
मुझसे कुछ चाह रही होगी
मेरे कानों में चुपके से-
कोई तो बात कही होगी
लेकिन ईमान नहीं काँपा, स्वामी को उसके ‘रिन’ न दियें
क्यों बात पलायन की सोचूँ
जीवन का गीत बहुत प्यारा
सुख-दुख के दोनों तट छॅकर
बहती है जीवन की धारा
सींचूँ ऊसर, सींचूँ बंजर, पर रूख सागर का किये-किये