आँसू जो पन्नों पर झरते / विमल राजस्थानी
जीवन की दुखती रग को क्यों छूकर छोड़ दिया साथी !
बातों ही बातों में तुमने
मेरे दुख की छवि-छाँह छुयी
पीड़ा की पीड़ा पहचानी
परिचित नख-शिख वेदना हुई
मैंने मन की पुस्तक खोली, तुमने आधे आखर बाँचे
आँसू जो पन्नों पर झरते, उनका पथ मोड़ दिया साथी !
समझा मेरी नासमझी थी
तुमने कोमल कमजोरी को
तुमने मेरा क्रन्दन समझा
मीठी थपकी को, लोरी को
मैंने तो अपने दुख को सुख-सपनों की निंदिया सौंपी थी
पर तुमने तो हँसते-हँसते सपना ही तोड़ दिया साथी !
‘जड़’ सुन्दर या कि असुन्दर हो
‘फुनगी’ को सुन्दर होना है
मेरा मन फूलों-पातों के-
हाथों का सुघड़ खिलौना है
मैं चाह रहा था इन्द्रधनुष तितली के पंखों पर टाँकूँ
लेकिन सुकुमार कल्पना को तुमने झिंझोड़ दिया साथी !
जीवन था जाना-पहचाना
था खेल उसे मैंने माना
सुख-दुख की आँख-मिचौनी को
शिशु मन का ही कौतुक जाना
मस्ती में था मैं टेर रहा, तारों पर उँगली फेर रहा
जो था नवनीत उसे नाहक दधि मान विलोड़ दिया साथी !