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मेघ किन्नरी / विमल राजस्थानी

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1
मधु-मेघ-किन्नरी
नव रूप-रस भरी
रे उमड़ आ रही
रे घुमड़ छा रही
मन-मुग्ध अवि मगन
नीलाभ छवि-गगन
कह आज गूँजता-
‘रे कुछ न सूझता’

2

यह बावली बनी
यह साँवली बनी
क्यों आज झूमती ?
क्यों आज चूमती-
भू के अधर सुघर ?
आयी यहाँ उतर-
क्यों ? जग न बूझता
स्वर एक गूँजता-

3
‘‘बरसात आ गयी
बरसात आ गयी
आघात ले गयी
तरू-पात दे गयी
मरू-हृदय भे गयी
रे नाव खे गयी’’
रस-धार बह रही
पुरवा न कह रही-

4
क्या एक बात यह
निष्ठुर अधिक न कह
तू जानता नहीं
पहचानता नहीं
दृग खोल देख रे
जी में जलन भरे
क्यों दुःख सह रही
पी अश्रु रह रही

5
क्यों त्राण खोजती
रे प्राण खोजती
छानी गली-गली
जल-अंक में पली
किस ताप से जली
वह कौन-सा छली-
सुख-मूल ले गया
दुख-शूल दे गया

6
विरहाग्नि सुलगती
वह देख-चमकती
जी की जलन प्रखर
आई वहाँ निखर
वातास आ रहा
उच्छ्वास छा रहा
जो धूल ले गया
फल-धूल दे गया