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पावस की पूर्णिमा / विमल राजस्थानी

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झिमिर-झिमिर-झिम्, झिमिर-झिमिर-झिम्
पावस-रानी के चंचल छवि-चरणों की पायलिया बोले।

1
मृदु आनन्दों के आलम में
बूँदों की झमझम-छम-छम में
कोई छली निहार रहा छिप-
छवि की यौवन-श्री चम-चम में

2
श्यामल मेघों के टुकड़ों का
घूँघट डाल हँस रही पूनम
कव की कजरारी आँखों में
बन छवि-जाल बस रही पूनम

3
जिनके साजन दूर देश में
जिनकी संगिनी करूण सिसकियाँ
उन वियोगिनी तपसिनियों को-
बन छवि-व्याल डँस रही पूनम

4
अचरज क्या कि सहानुभूति के-
लिए मेघ-परियाँ रोती हों
अचरज क्या कि सहानुभूति से-
उनको और व्यथा होती हो
यह हो भले, किन्तु यह क्या कि किसी स्नेही का दरद देखकर-
किसी दूसरे स्नेही-जन का थोड़ा-सा भी हृदय न डोले

5
कुंज-कुंज गुंजन बिखरा है
कविता का यौवन निखरा है
हृदय-हृदय, कोटर-कोटर में
मधुर-मदिर आनंद भरा है

6
भावों की बाँसुरी बज रही
कंठ-कंठ कल कूजन छाया
प्राण-प्राण में खिली उमंगें
यह किसके जादू की माया

7
मृसण-मधुर कल्पना-बीन के-
तार, किरण पोरों से छूकर
वीथि-वीथि में विहँस उड़ेले-
पूनम ने रस के छवि-गागर

8
बिखर रहे स्मृति-कक्षों में-
जब सुख-सपने नीले-पीले
व्यर्थ इधर क्यों प्राण ! तुम्हारे-
नयन हो रहे गीले-गीले
इस छवि के उत्सव में रानी ! अन्तर का दुख-दरद भुला कर-
क्यों न तुम्हारे प्राणों की श्याम वदनि कोयलिया बोले