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डर / गोविन्द माथुर
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जबकि कोई दुश्मन नहीं है मेरा
फिर भी डरा हुआ रहता हूँ
डर है कि निकलता ही नहीं
दिखने में तो कोई दुश्मन नहीं लगता
फिर भी पता नहीं
मन ही मन
किसी ने पाल रखी हो दुश्मनी
ये सही है कि
मैंने किसी का हक नहीं मारा
किसी कि ज़मीन-जायदाद नहीं दबाई
किसी को अपशब्द नहीं कहे
फिर भी मुझे शक है
किसी भी दिन सामने आ सकता है दुश्मन
सच और खरी-खरी कहना
हँसी-हँसी में कटाक्ष करना
झूठी प्रशंसा नहीं करना
इतना बहुत है
किसी को दुश्मन बनाने के लिए
सुझाव भी सहजता से नहीं लेते
आलोचना तो बिलकुल बर्दाश्त नहीं करते
किसी भी दिन मार सकते है चाक़ू
सोचता हूँ चुप रहूँ
पर कुछ भी नहीं बोलने को भी
अपमान समझते है लोग