बाहर का प्रकाश क्या होगा / विमल राजस्थानी
भीतर तो घन-अंधकार है, बाहर का प्रकाश क्या होगा ?
आदर्शों की चर्चा करते
जीभ घिसी, गयी उमरिया
सूखे ताल, अकाल पड़ गये
झरी न लेकिन नयन-बदरिया
झूठे जप, झूठी पूजा से जीवन का विकास क्या होगा ?
सुबह-शाम हम आसने मारें
परम ब्रह्म को भजें, पुकारें
किन्तु, द्वार पर खड़े दुखी को-
फूटी आँखों भी न निहारें
द्वार बन्द होंगे नर्कों के, स्वर्गों में निवास क्या होगा ?
व्यर्थ बन्धु ! यह द्वार-द्वार पर,
आँगन-आँगन दीप जलाना
सार्थक तो केवल खुद जल-जल
कण-कण में प्रकाश फैलाना
जब तक चिर आलोक नहीं हो कल्मष का विनाश क्या होगा ?
ज्योति-तिमिर के बीच यहाँ तो
चाँदी की दीवार खड़ी है
हतप्रभ पुण्य, पाप की घर-घर,
आँगन-आँगन ध्वजा गड़ी है
कल्मष-कोलतार से चुपड़े मुखड़ों पर सुहास क्या होगा ?
भीतर तो घन-अंधकार है, बाहर का प्रकाश क्या होगा ?