मत निहार, नभ को, तेरे भीतर ही रंग भरे
यह संतरगी ‘इन्द्रधनुष’ तो पल-दो पल का है
मेघों से, तारों से कब शाश्वत सुख छलका है
अन्तर में छवि-पुंज, रंग ‘चक्रों’ के न्यारे हैं
रस-निर्झर के भिन्न-भिन्न स्वर कितने प्यारे हैं
मन-उपवन की वीथि-वीथि पर कर्म-कुसुम बिखरे
मत निहार नभ को, तेरे भीतर ही रंग भरे
नभ ने क्षिति को ‘एक तार’ में किलक-पुलक बाँधा
एक तान ने ‘तीन स्वरों’ का स्वर-संगम साधा
रंग वसन्ती नक्षत्रों का रोम-रोम भींगा
रंगस्नात प्रिया के रँग में धरा-व्योम भींगा
सहस पँखुरियों से सुहास की अमृत-सुगंध झरे
मत निहार नभ को, तेरे भीतर ही रंग भरे