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सही आदमी / विमल राजस्थानी

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दुख देख दूसरों का जो मनुज द्रवित न हो
जो भी कहो उसे मगर मनुष्य मत कहो
पशु को दया मिली न-
मिली कीट-कीर को
वे जानते-पहचानते-
अपने शरीर को
शिशु की जरूरतों को
या अपनों की पीर को
नर-पशु कहो, न कीट की कहो कुजीव को
उपमा न दूसरी मिले तो मौन ही रहो
अपनों का दर्द तो
यहाँ सभी सँभालते
भरते हैं आह और-
हैं आँसू उछालते
पलते हैं आप, अपना-
ही परिवार पालते
दुख-दर्द दूसरों का देख जो हिले-गले
उस दर्द के बहाव में प्रसन्न-मन बहो
जो दूसरों का दुख हरे
वही है आदमी
जिसका हृदय उदार
वह सही है आदमी
जो स्वार्थी, कठोर
वह नहीं है आदमी
जो दीन-दुखी जीव, उसे अंक लगा लो
गिरते हुए की बाँह को, आगे बढ़ो, गहो
मनुष्य हो, मनुष्य की तरह सदा रहो