प्रदीप प्रीत-प्यार का / विमल राजस्थानी
तुम्हारे साथ-साथ आज देश की पुकार पर
राष्ट्री की पुकार पर
विराट् मातृ-द्वार पर
पवित्र पितृ-द्वार पर
रे ! वक्त की गुहार पर
सजा रहा प्रदीप एक मैं भी प्रीत-प्यार का
घृणा का वृक्ष वज्र-वक्ष तान कर उखाड़ दूँ
वतन के दुश्मनों को रौंद-रौंद कर पछाड़ दूँ
सितारे टूट जायें गर जरा-सा मैं दहाड़ दूँ
दिल इतना बड़ा कि कोई प्रेम से पुकार ले
तो तार-तार झनझना उठे हृदय-सितार का
जब चारों ओर अंधकार का विशाल राज हो
तो क्यों न एक दीप पर गुमान, गर्व नाज़ हो
आतंक से डरा-डरा, मरा-मरा समाज हो
तो क्यों न चाँदनी बिखेरने को लेखनी उठे
न कैसे फूल हो उदास काव्य-हरसिंगार का
अधर्म पर हुआ जयी सुधर्म तब दिये जले
समग्र राष्ट्र आ खड़ा हुआ प्रकाश के तले
वही प्रकाश-पुज्ज देश को पुनः पुनः मिले
इसीलिए प्रदीप एक धर रहा हूँ द्वार पर
कि सर्वनाश हो सके कुटिल घृणांधकार का