तोड़ो समाधि ! खोलो त्रिनेत्र / विमल राजस्थानी
जनता चिल्लाये भूख ! भूख !! जनगण चिल्लाये त्राहि ! त्राहि !!
पर ओ शासन के दुःशासन ! तुम थके न करते चीर-हरण
यह कैसी राजनिति, जो अन्यायी के माथे तिलक करे
यह कैसा अविवेकी चुनाव, जो शोषक के सिर ताज धरे
रक्षक ही बनते हैं भक्षक, पद-मर्यादा तो तार-तार
है कौन तपस्वी जो भारत को ले इस संकट से उबार ?
यदि है तो आगे बढ़े कि गिन-गिन कर ले इनके सिर उतार
प्रकटे, प्रकटे वह महावीर, इंगित पर नाचे महामरण
जो देश कभी सिरमौर रहा, उसके हाथों में झोली है
चालीस कोटि इन कंठो में, ‘भिक्षां देहि’ की बोली है
ईमान, धर्म औ’ स्वाभिमान तो समा गये इतिहासों में
चोरी, छल-छद्म, कपट, हिंसा बस गयी देश की साँसों में
नख-शिख श्रृंगार किये दानवता पूजित है आँगन-आँगन
बन गयी दिगंबर मानवता, साहित्य घूमता निरावरण
जागो-जागो ओ अमृतप्राण ! तोड़ो समाधि, खोलो त्रिनेत्र
युग-युग से तृष्णाकुल-व्याकुल मेरे भारत का दिव्य क्षेत्र
जागो ओ अर्जुन ! भीम ! नकुल ! सहदेव धनुर्धर ! जाग ! जाग !!
ओ धर्मराज ! देखो-देखो, प्यार स्वदेश में लगी आग
यह आग अनय की, तृष्णा की, पद-मद, नश्वर ऐश्वर्यों की
यह आग कोटि द्रौपदियों की जिनके नित होते चीर-हरण
तोड़ो समाधि, खोलो त्रिनेत्र, जागो-जागो ओ प्रलयंकर
जागो विषपायी शिव शंकर !! जागो हे महाकाल ! नटवर !!
यह भारत-भूमि अनाचारों की मार न अब सह पायेगी
यदि तुमने कृपा न की शंकर ! मानवता ही मिट जायेगी
इस दुराचार की भट्ठी में सर्वस्व देश का भस्म हुआ
जीवन छिड़को, यौवन फूँकों, प्रभु ! करो-करो अमृत-वर्षण
तुम जियो हमें भी जीने दो
तुम लाख जमा कर लो फौजें, भर लो हथियारों से धरती,
यह वीर-प्रसू भारत माता, परवाह नहीं किंचित करती।
तुम भूले-बिसरे हो अतीत, है वर्तमान पर दर्प तुम्हें,
हम भी देखें देते कितना अपना विष गोरे सर्प तुम्हें।
हम कालकूट कंठों में धर, नागों से खेला करते हैं,
हम शंकर-प्रलयंकर वज्रों को, हँसकर झेला करते हैं।
शीशे-सो पत्थर से टकराकर चूर-चूर यदि होना हो,
दुनिया के नक्शे से खुद को यदि तुम्हें मिटाना-खोना हो।
दुस्साहस कर आगे आओ, मेरी हस्ती से टकराओ,
पल भर में राख बना देगी जलती बाती मत उकसाओ।
तुम जियो, हमें भी जीने दो, दो प्यार, नहीं संगीनें दो,
हम भारतवासी मधुपायी, मत लहू मनुज का पीने दो।
इतिहासों के पन्नों को तुम मानो, मत लहू-लुहान करो,
अंजलि फैली है भारत की, इसमें प्रेमिल सद्भाव भरो।