भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खिलौना माटी का / प्रदीप

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:29, 21 दिसम्बर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार = प्रदीप }} {{KKCatGeet}} <poem> तूने खूब रचा भगव...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तूने खूब रचा भगवान्
खिलौना माटी का
इसे कोई ना सका पहचान
खिलौना माटी का

वाह रे तेरा इंसान विधाता
इसका भेद समझ में ना आता
धरती से है इसका नाता
मगर हवा में किले बनाता
अपनी उलझन आप बढाता
होता खुद हैरान
खिलौना माटी का
तूने खूब रचा खूब गड़ा
भगवान् खिलौना माटी का

कभी तो एकदम रिश्ता जोड़े
कभी अचानक ममता तोड़े
होके पराया मुखड़ा मोड़े
अपनों को मझधार में छोड़े
सूरज की खोज में इत उत दौड़े
कितना ये नादान
खिलौना माटी का
तूने खूब रचा खूब गड़ा
भगवान् खिलौना माटी का