दिल्ली के दिल में दरार / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
जबसे दिल्ली के दिल में दरार देखा है
मेरे गले के गुलदान में रखी हुई
साँस की सफ़ेद कलियाँ सूखने लगी हैं
गुलाब की पंखुड़ियों से लहू की बू आ रही है
किसी ‘पथार’ की तरह टूटने लगी है आवाज़
पपनियों के पोरों पर स्याह बर्फ़ जम गई है
नसों में उड़ते घोड़ों के पंख पिघल गए हैं
रह-रहकर सिहर उठता है उदासी का सिरा
वक़्त की मटमैली और बंज़र धड़कनों में
मैं एक बार फिर बात के बीज बोने लगता हूँ।
देह की दीवार पर शर्म के धब्बे धधक रहे हैं
खौलता हुआ ज़ेहन आज फिर शर्मिंदा है
अपनी ही तरह के नैन-नक़्श वाले लोगों पर
(उन्हें ‘अपना’ कहते हुए मेरे होंठ झुलस गए हैं)
आख़िर क्यों जब खिलता है ख़्वाब का कोई फूल
तो जुनून की जाँघों में अंधी जलन होती है
आख़िर क्यों ‘रोलर’ चलाकर रौंदा जाता है
किसी मासूम की छलकती हुई छाती को
आख़िर क्यों चाँद की चमकदार झिल्लियाँ
बीमार और पीली पुतलियों में ‘कार्बेट’ से पकाई जाती हैं।
बवंडर बनकर उठते हैं जब सवाल
आसमान में तैरने लगती हैं मछलियाँ
हवा हथेलियों पर बिखेर जाती है सिहरन
एक जानवर आदमी को देखकर मुस्काता है
झाग बनाने से इंकार कर देता है समंदर
आग की आहटें बचती हैं बासी अँधेरों के बीच
कोई कान पर काँपता हुआ सन्नाटा उड़ेलता है
बाँग देने लगते हैं दुनिया के तमाम मुर्गे
एक चूहा कुतर जाता है सुबह की नींद
उजली कोख की काली क़िस्मत बाँझ होना चाहती है।
बहन की आँखों में चुप्पियों का जाला है
और माथे पर शक की कई शिकनें हैं
महीनों हो गए हैं साथ खाना खाए हुए
बहुत दिनों से घर नहीं लौटा है भाई
(वह जानता है कि तूफ़ान जल्द आएगा,
अगर दिमाग़ से कूड़ा नहीं निकल जाता)
माँ की रूह घुट गई यह कहते हुए—
समस्या की जड़ों तक कोई भी नहीं जाता
इतना तो मुझे मालूम है कि
बाबूजी दवा से ज़्यादा, सर्जरी में यक़ीन रखते थे।