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वह कुछ नहीं कहता / किरण अग्रवाल
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कहाँ गई वो गरमाहट अँगुलियों की
संवेदनाओं के रंगों में डूबे
आकार ग्रहण करते
एक-एक अक्षर
गुस्सा, प्यार, सुगबुगाहट, बैचेनी
कहाँ गई एक-एक शब्द में लिपटी
तुम्हारी आँखों की नमी
तुम्हारे थरथराते लबों से लेकर
तुम्हारी काँपती अँगुलियों तक
फैलती जाती भाव-तरंग
जो कर देती थी तुम्हारे अक्षरों को
टेढ़ा-मेढ़ा
थोड़ा इधर या उधर
मेरे हाथ में तुम्हारा मशीनी-पत्र है
कम्प्यूटर पर लिखा गया
जहाँ सिर्फ़ तुम्हारा हस्ता़क्षर है
तुम्हारी हस्तलिपि का चश्मदीद गवाह
लेकिन वह भी कुछ नहीं कहता
नहीं हिलाता अपने हाथ-पैर-मुँह-गर्दन
बस अपनी सर्द आँखों से
ताकता है एकटक शून्य में
मानो उसी स्थिति में फ़्रीज हो गया हो