भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ख़ामोशी / माधवी शर्मा गुलेरी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:54, 7 जनवरी 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=माधवी शर्मा गुलेरी |संग्रह= }} {{KKCatKavit...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अँधेरा पसरा हुआ है
खिड़की के बाहर
घुप्प...
बियाबान है पूरी पहाड़ी
मद्धम-सी एक लौ
दूर वीराने से निकल
खेल रही है आँख-मिचौली

यहाँ-वहाँ भटक रही
नन्हीं मशालों पर
जा अटकी हैं बोझिल नज़रें
जाने किस तलाश में है
टोली जुगनुओं की

बेसुर कुछ आवाज़ें
तिलचट्टे और झींगुर की
चीरे जा रही हैं
तलहटी में बिखरे सन्नाटे को

टिमटिमाते तारों ने
ओढ़ लिया है बादलों का लिहाफ़
और
तेज़ हवा के थपेड़ों से
झूलने लगा है कमरे से सटा
देवदार का दरख़्त
मैं खिड़की बंद कर लेती हूँ

भीतर एक शोर था
सन्नाटे में डूबकर
ख़ामोश हो गया है जो ।