भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कह गया जो आता हूँ अभी / अनिरुद्ध उमट
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:31, 20 जनवरी 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनिरुद्ध उमट |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> अ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
अभी आएँगे वे
ज़रा पान की दूकान पर गए हैं
राह देखती खाली कुर्सी
कितनी चीज़ें हैं
इस घर में
आत्माएँ उनकी रोती उस क्षण को
कह गया जो आता हूँ अभी...
प्यास
आँगन में एक कुआँ
जिसका जल
हर प्यास में ऊपर उठ आता
एक दिन
घर का दरवाज़ा खुला देख
बाहर को गया
तो बरसों लौटा नहीं
एक-एक कर सभी
उतरे कुएँ में
बनाने भीतर ही दरवाज़ा
किसी की भी आवाज़
नहीं सुनाई दी फिर कभी
एक दिन भूला-भटका जल
लौट आया
और कुएँ में लगा झाँकने
पीछे से दीवारों ने उसकी गर्दन
धर-दबोची
सभी घरो के दरवाज़े बंद थे...