भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रणय राग / श्याम कश्यप
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:28, 20 जनवरी 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्याम कश्यप |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> तु...' के साथ नया पन्ना बनाया)
तुम्हारे सीने के नर्म
घोंसले से बाहर फुदक
चहकने लगे हैं नन्हे दो तीतर
तीखी चोंच उनकी
नुकीली बर्छी-जैसी
मेरे दिल में अटक गई है बिंधकर ।
मेरी बाँहों में बंधी कसकर
चिपकी होठों से निश्शब्द
कुछ ऊपर उठ आई हो विकंपित
जहाँ आत्मा की परछाईं
दो जिस्मों के भीतर गिर रही है
काँपती हुई लौ में थरथराती-सी !
जैसे दूर किसी जल-प्रपात का शोर
बह रहा हो धीमा-
असंख्य-अनंत बूँदों में
टूट कर बिखरने से पेश्तर ।