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धुँआ (13) / हरबिन्दर सिंह गिल
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यह धुआं बहुत निर्दयी है
पूछो न इसके वार को ।
जिस फूल के लिए
हवा का एक तेज झोंका ही
काफी है, उसे डाली से
अलग कर फेंकने के लिए
यह आता है पूरी आंधी से
और कर देता है, पंखुड़ी अलग अलग
पैरों तले रौंदने के लिए ।
उस निर्दयी धुएं ने यह न सोचा
निकल जांऊ जरा हटकर
इसमें पल रहा है, कोई बच्चा
जिसने अपनी आंखें भी नहीं खोली हैं
वह कैसे चलेगा उठकर जिंदगी की राह पर ।
तूने तो मार दिया माली को
वह कैसे करेगा आबाद
यह उजड़ा गुलिस्तांब ।