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धुँआ (15) / हरबिन्दर सिंह गिल
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यह धुआं बहुत दगाबाज है
कर देता है, पैदा हवाएं शक की
और आ जाता है, पतझड़ परस्पर विश्वास पर ।
सूखने लगती है, डालियां एक-एक कर
और घोंसले पक्षियों के
लगते है बिखरने, तिनका तिनका कर
क्योंकि, दरार पड़कर रह गई है, जमीन में
तना भी सह नही पा रहा है, भार अपना
पूरा-पूरा का पेड़ ही टूट कर गिर गया है ।
क्या जड़ से उखड़ा पेड़
लग पायेगा, जमीन में दुबारा कभी ।
हाँ वे जड़ें जिसमें नही लगी है दीमक
शायद जब कभी दुबारा आए बहार
फिर जाकर अंकुरित होगा, ये पेड़ टूटा हुआ ।
परंतु उस समय तक, समय बहुत बीत चुका होगा
जब तक वह बड़ा होगा और आयेगी नई डालियां
तब तक क्या वो पक्षी, जिनका वास था इन पर, रह पाएंगे
जो हुए थे कभी शिकार इस दगाबाज धुएं के ।