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धुँआ (18) / हरबिन्दर सिंह गिल
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यह धुआं बहुत बहरूपिया है
इसकी आवाज में है, वाणी संतो की
गहराई है, जीवन के दार्शनिकता की
मिठास है, सभ्यता और मानवता की
परंतु जब कोशिश करेंगे
इसे सुनकर समझने की
पाओगे एक विशेष अंतर ।
यह समय की आवाज नहीं है
इसमें तो सुनाई देता है
एक सुर दुहाई का
कि धर्म संकट में है
शायद अपने हितों को
संकट से उभारना चाहते हैं
इसलिए उन्होंने पहना दिया है
इस धुएं को एक चोला धर्म का ।
चोला धर्म का, जिस पर लिख दिया है
कि धर्म संकट में है
उसे उबारना है, चाहे धार्मिकता को दांव पर लगाना पड़े ।
दांव पर लगी थी द्रौपदी भी कभी
शिकार हुई थी, इसी बहरूपिये धुएं की ।