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धुँआ (26) / हरबिन्दर सिंह गिल

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क्या धुआं सबकी समस्या नहीं है
यदि नही तो, इसे क्या नाम दें
उसे कहें जिंदगी की मूलभूत जरूरत
या है हर धर्म की मूलभूत आवश्यकता
या मान लें, इसे समाज का एक अभिन्न अंग ।

यदि इसे हम जिंदगी की जरूरत मान लें
फिर क्यों इसकी कटु आलोचना
आलोचना तो विवाद की होती है
अगर ये विवाद नहीं है
इसे जीवन का सत्य क्यों न मान लें
और यदि इस धुऐं का अस्तित्व सत्य है
यह बेझिझक क्यों न मान लें
सत्य आत्मा नहीं, सत्य शरीर है ।

यदि हम इसे धर्म की मूलभूत आवश्यकता मान लें
फिर क्यों इसकी दार्शनिकता पर प्रश्न चिन्ह
प्रश्न चिन्ह तो सवाल पर लगता है
अगर यह सवाल नहीं है
इसे धर्म ग्रंथ का उपदेश क्यों न मान लें
और यदि यह धुआं , धर्म ग्रंथ का उपदेश है
यह वे झिझक क्यों न मान लें
सत्य दार्शनिकता नहीं, सत्य रूढ़ीवाद है ।

यदि इसे हम समाज का अभिन्न अंग मान लें
फिर क्यों इसकी बर्बरता पर रोष
रोष तो दुश्मन पर होता है
यदि यह दुश्मन नहीं है तो
इसे समाज का हितैषी क्यों न मान लें
और यदि यह धुआं समाज का हितैषी है
तो यह बेझिझक क्यों न मान लें
कि सत्य मानवता नहीं, सत्य ‘‘मैं’’ है ।