भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धुँआ (34) / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:04, 8 फ़रवरी 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल |संग्रह=धुँआ / ह...' के साथ नया पन्ना बनाया)
मैं एक चित्रकार के पास गया
जो अपने रंगो से
इस धुएँ का चित्र बनाकर
समाज के सामने
प्रदर्शनी में रख सके
ताकि वह मानव को
अपने ही कुकर्मों का रूप दिखा सके
उसे अपनी ही आत्मा का
काला रंग दिखाई दे सके ।
उस चित्रकार ने पूछा
बताओ मुझे उन दीवारों को
जहां धुएँ का चित्र प्रदर्शन करना है
देखकर उन दीवारों को
चित्रकार ने कहा
कल यह कमरा प्रदर्शनी के लिए
तैयार हो जाएगा
समाज इसका अवलोकन कर सकेगा
परंतु घंटे बीत गए, पहर बीत गये
दिन पर दिन बीत गये, सालों बीत गये
मगर किसी की हिम्मत नहीं हुई देख सकूं
अपने ही आत्मा के घिनौने स्वरूप को
जिसे उस चित्रकार ने अपने ही खून के रंग से
दिया था स्वरूप उन दीवारों पर धुएँ के चित्र को ।